
काको की कहानी
किसी शहर का चरित्र खोजना है तो उसके जन में बसे किस्से-कहानियों में खोजा जाए.’ काको के संदर्भ में कही गई अमृतलाल नागर की ये पंक्ति इस शहर के मूल चरित्र की पहचान करने में बेहद सहायक है.काको ऐसे ही बेशुमार किस्से-कहानियां अपने अंतस में समेटे हुए है. अगर उन्हीं की राह चलते हुए काको को तलाशा जाए तो हम ऐसी कई कहानियों से मदद पा सकते हैं जो कि काको समाज में पीढ़ियों से रची-बसी हैं. जैसे कि इस शहर में कोई नवाब हुआ करते थे वैसे किस्से-कहानियां सिर्फ नवाबी के दायरे में ही नहीं सीमित, इसके बाहर भी बेशुमार हैं. इतिहास शहर के शानदार अतीत का एक गवाह इस तरह के तमाम किस्से बिखरे पड़े हैं, जो आपको बता देंगें, कि काको क्या है.सूफी संतों की फेहरिस्त में बीबी कमाल का नाम भी प्रमुख लोगों में है। आईने अकबरी में महान सूफी संत मकदुमा बीबी कमाल की चर्चा की गयी है। जिन्होंने न सिर्फ जहानाबाद बल्कि पूरे विश्व में सूफीयत की रौशनी जगमगायी है। इनका मूल नाम मकदुमा बीबी हटिया उर्फ बीबी कमाल है। दरअसल बचपन से ही उनकी करामात को देखकर उनके पिता शहाबुद्दीन पीर जराजौत रहमतूल्लाह अलैह उन्हें प्यार से बीबी कमाल के नाम से पुकारते थे यही कारण है कि वह इसी नाम से सुविख्यात हो गयी। इनके माता का नाम मल्लिका जहां था। बीबी कमाल के जन्म और मृत्यु के बारे में स्पष्ट पता तो नहीं चलता है लेकिन जो जानकारी सामने आयी है उसके मुताबिक 1211 ए.डी में उनका जन्म हुआ था तथा लगभग 1296 एडी में इंतकाल हुआ था। बीबी कमाल में काफी दैवीय शक्ति थी। कहा जाता है कि एक बार जब बीबी कमाल काको आयी तो यहां के शासकों ने उन्हें खाने पर आमंत्रित किया। खाने में उन्हें चूहे और बिल्ली का मांस परोसा गया। बीबी कमाल अपने दैवीय शक्ति से यह जान गयी कि प्याले में जो मांस है वह किस चिज का है। फिर उन्होंने उसी शक्ति से चूहे और बिल्ली को निंदा कर दी। बीबी कमाल एक महान विदुषी तथा ज्ञानी सूफी संत थीं जिनके नैतिक, सिद्धांत, उपदेश, प्रगतिशील विचारधारा, आडम्बर एवं संकीर्णता विरोधी मत, खानकाह एवं संगीत के माध्यम से जन समुदाय तथा इंसानियत की खिदमत के लिए प्रतिबद्ध एवं समर्पित थीं। काको स्थित बीबी कमाल के मजार से 14 कोस दूर बिहारशरीफ में उनकी मौसी मखदुम शर्फुद्दीन यहिया मनेरी का मजार है। ठीक इतनी ही दूरी पर कच्ची दरगाह पटना में उनके पिता शहाबुद्दीन पीर जगजौत रहमतुल्लाह अलैह का मजार है।
1. बीबी कमाल का मजार- महान सूफी संत बीबी कमाल का मजार मुख्य दरवाजा के अंदर परिसर में अवस्थित है। रुहानी इलाज के लिए प्रसिद्ध मन्नत मानने तथा ईबादत करने वाले लोग इनके मजार को चादर एवं फूलों की लरीयों से नवाजते है। यहां उर्स के मौके पर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
2. कड़ाह- जनानखाना से दरगाह शरीफ के अंदर जाने के साथ एक काले रंग का पत्थर लगा हुआ है, जिसे कड़ाह कहा जाता है। यहां आसेब जदा और मानसिक रुप से विक्षिप्त लोग पर जूनूनी कैफियततारी होती है। इस पत्थर पर दो भाषा उत्कीर्ण हैं जिसमें एक अरबी है, जो हदीस शरीफ का टुकड़ा है और दूसरा फारसा का शेर। इसी पर महमूद बिन मो. शाह का नाम खुदा है, जो फिरोज,शाह तुगलक का पोता था।
3. रोगनी पत्थर- दरगाह के अंदर वाले दरवाजे से सटा एक छोटा सा सफेद और काला पत्थर मौजूद है। लोगों का कहना है कि इस पत्थर पर उंगली से घिसकर आंख पर लगाने से आंख की रोशनी बढ़ जाती है। आम लोग इसे नयन कटोरी के नाम से जानते है।
4. सेहत कुआं- दरगाह के ठीक सामने, सड़क के दूसरे तरफ कुआं है, इसके पानी के उपयोग से लोगों के स्वस्थ्य होने का किस्सा मशहूर है। बताया जाता है कि फिरोज शाह तुगलक, जो कुष्ट से ग्रसित था, ने इस पानी का उपयोग किया और रोग मुक्त हो गया।
5. वका नगर- दरगाह से कुछ दूरी पर अवस्थित वकानगर में हजरत सुलेमान लंगर जमीं का मकबरा है, जो हजरत बीबी कमाल के शौहर थे। एैसी मान्यता है कि यहां की जमीन जन्नत की जमीन से बदली गयी थी।दरअसल काको अपने आप में वो अफसाना है कि जितना सुनते जाइए उतना ही दिलचस्प होता जाता है. जो भी इसका बयान सुनाता है, एक नई दास्तान सुनाता है. एक शहर, जिसका खयाल आते ही जहन में तहज़ीब की शमाएं रोशन हो उठती हैं. जिसका जिक्र छिड़ते ही दिल की गलियां गुलशन हो उठती हैं. जिसका नाम लेकर आशिक अहदे वफा करते हैं, सुखन-नवाज़ जिसके होने का शुक्र अदा करते हैं. क्या इतनी खूबियों से भरपूर मकाम सिर्फ एक अदद शहर हो सकता है ?दरअसल काको वो तिलिस्म है जिसमें कैद हुआ शख्स कभी आज़ाद नहीं होना चाहता. जो दुर्भाग्य के कारण यहां से निकल भी जाते हैं वो अपनी आंखों में काको के मंजर लिए भटकते हैं और इसकी यादों को अपने कलेजे से हरदम लगाए रहते हैं. इतिहास गवाह रहा है कि ऐसे दीवाने जहां भी जाते हैं एक नया काको बसा देते हैं.काको वाले कहीं भी रहें काको आदाब कभी नहीं भुलाते. पुरखों से विरासत में मिले तहज़ीब के लबालब खजाने को कैसे दोगुना-चौगुना करना है, ये उन्हें खूब आता है. अपने अंदाज़-ए-बयां से वे दुश्मन को भी अपना दीवाना बना सकते हैं. जीवन में कितनी भी कड़वाहट क्यों न हो काको वालों की जुबान पर इसका असर कभी नहीं दिखेगा. हिंदुस्तान ने अपनी साम्प्रदायिक एकता की जान इस शहर में समोई हुई है. फिरकापरस्ती आज भी इस शहर में आते हुए शर्माती है. नज़ाकत काको की पहचान है. इस बे-मिसाल बा-कमाल शहर की लोक मान्यताएं हमें बताती हैं कि कभी ये भगवान राम के छोटे भाई शहर हुआ करता था. जहानाबाद रेलवे स्टेशन के लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर जहानाबाद बिहार.शरीफ रोड मे अवस्थित काको प्रखड का मुख्यालय है। स्थानीय कथनानुसार श्री रामचन्द्र के सौतेली माँ रानी केकइ कुछ समय यहाँ वास ग्रहण की थी। उन्हीं के नाम पर इस ग्राम का नाम काको पङा। ग्राम के उत्तर-पश्चिम में एक मन्दिर है, जिसमें सूर्य भगवान की एक बहुत पुरानी मूर्ति स्थापित है। प्रत्येक रविवार को बङी संख्या मे लोग पूजा करने के लिए आते है। सूर्य मंदिर का प्राचीन इतिहास है। सूर्योपासना के इस विख्यात केन्द्र मे प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु छठ व्रत के लिए पहुंचते हैं। बताया जाता है कि इस स्थान पर छठव्रत करने पर सारी मनोकामनाएं पूरी होती है। यहां भगवान विष्णु की प्राचीन मूर्ति है।ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में पनिहास के दक्षिणी पूर्वी कोने पर राजा ककोत्स का कीला था। उनकी बेटी केकैयी इसी मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना करती थी। ककोत्सव की बेटी ही कलांतार में अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी बनी थी। भगवान विष्णु की प्रतिमा आज काको सूर्य मंदिर में स्थापित है। बताया जाता है कि 88 एकड़ में फैले इस पनिहास का जब सन् 1948 में खुदाई कराई जा रही थी तो भगवान विष्णु की प्राचीन प्रतिमा मिली था। उस प्रतिमा को प्राण प्रतिष्ठा के उपरांत पनिहास के उत्तरी कोने पर स्थापित किया गया। सन् 1950 में आपसी सहयोग के जरीए भगवान विष्णु का पंचमुखी मंदिर का निर्माण कराया गया जो आज अस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस मंदिर के चारों कोने पर भगवान भाष्कर, बजरंग बली, शंकर पार्वती एवं मां दुर्गे की प्रतिमा स्थापित है। बीच में भगवान विष्णु की प्राचीनतम प्रतिमा को स्थापित किया गया है।
इतिहास हमें बताता है कि इस शहर ने अपनी आंखों से यहां कई-कई हुकूमतों को आते और जाते देखा है. लेकिन ये भी सच है कि काको के इतिहास का सबसे लोकप्रिय हिस्सा नवाबी और उसके बाद के कालखण्ड में लिखा गया है. काको कला, साहित्य एवं संस्कृति के गढ़ के तौर पर पहचाना जाने लगा. जब अंग्रेज़ों ने संग्राम का और उसके बाद अंग्रेज़ों के भीषण दमन का साक्षी भी बना.. कुल मिलाकर काको का इतिहास इतना समृद्ध है कि अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि काको जो भी था अपने अतीत में था और वो काको अब गए दिनों का किस्सा हो गया. लेकिन ऐसा वही कहते हैं जिन्होंने काको को सिर्फ इतिहास की किताबों में पढ़ा है. आज के काको को नहीं देखा.सच तो ये है कि समय के साथ ये शहर अपने क्षेत्रफल को चाहे जितना बड़ा कर ले इसका सांस्कृतिक गुरुत्व-केंद्र अटल रहता है. इतना बड़ा दिल दुनिया के बहुत कम शहरों के पास होता है कि हर आने वाले को अपना बना ले और खुद को उसका बना दे. असल में काको को नए काको और पुराने काको के खांचों में बांटने वाले भी वही हैं, जो इस शहर के संस्कारों से अछूते रह गए हैं.काको सिर्फ एक है और वो कभी नया या पुराना नहीं हो सकता, क्योंकि काको एक शहर का नहीं बल्कि एक संस्कृति का नाम है. आपको एक ही सूरज से रोशन मिलेगी जिसका नाम काको है. काको वाले तो काको की मिट्टी के हर ज़र्रे को अपनी ज़िंदगी का आफताब समझते हैं. इसीलिए चौक की गलियों में चहल कदमी करते हुए उन्हें गेसु-ए-जानां के खम सुलझाने जैसा लुत्फ आता है, काको नगर की सड़कों पर भी वे उसी तरह आवारगी करते हैं जैसे बाद-ए-सबा किसी चमन से होकर गुजरती है.वास्तव में काको अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दिल से लगाए हुए अपने समय से कदम मिला रहा है. जिस तरह हर दिन व्यक्ति के कपड़े बदलने मात्र से उसकी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता, उसी तरह समय के अनुसार इस शहर में हुए तमाम बाहरी परिवर्तनों के बाद भी काको की रूह और उसके किरदार में जरा भी तब्दीली नहीं हुई है. काको अगर बदला भी है तो बेहतरी के लिए बदला है. काको की इन खूबियों के बावजूद अगर किसी बयान में सिर्फ खूबियां ही बताई जाएं तो ये बयान अधूरा ही कहा जाएगा. ये भी सच है कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद इस शहर के स्वभाव में कई ऐसी बातें हैं जिन्हें किसी भी नज़र से तहज़ीब के दायरे में नहीं रखा जा सकता. आप किसी भी काको से इन कमियों का ज़िक्र कीजिए वह सर झुकाकर अपनी शर्मिंदगी का इज़हार करेगा,
1. बीबी कमाल का मजार- महान सूफी संत बीबी कमाल का मजार मुख्य दरवाजा के अंदर परिसर में अवस्थित है। रुहानी इलाज के लिए प्रसिद्ध मन्नत मानने तथा ईबादत करने वाले लोग इनके मजार को चादर एवं फूलों की लरीयों से नवाजते है। यहां उर्स के मौके पर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
2. कड़ाह- जनानखाना से दरगाह शरीफ के अंदर जाने के साथ एक काले रंग का पत्थर लगा हुआ है, जिसे कड़ाह कहा जाता है। यहां आसेब जदा और मानसिक रुप से विक्षिप्त लोग पर जूनूनी कैफियततारी होती है। इस पत्थर पर दो भाषा उत्कीर्ण हैं जिसमें एक अरबी है, जो हदीस शरीफ का टुकड़ा है और दूसरा फारसा का शेर। इसी पर महमूद बिन मो. शाह का नाम खुदा है, जो फिरोज,शाह तुगलक का पोता था।
3. रोगनी पत्थर- दरगाह के अंदर वाले दरवाजे से सटा एक छोटा सा सफेद और काला पत्थर मौजूद है। लोगों का कहना है कि इस पत्थर पर उंगली से घिसकर आंख पर लगाने से आंख की रोशनी बढ़ जाती है। आम लोग इसे नयन कटोरी के नाम से जानते है।
4. सेहत कुआं- दरगाह के ठीक सामने, सड़क के दूसरे तरफ कुआं है, इसके पानी के उपयोग से लोगों के स्वस्थ्य होने का किस्सा मशहूर है। बताया जाता है कि फिरोज शाह तुगलक, जो कुष्ट से ग्रसित था, ने इस पानी का उपयोग किया और रोग मुक्त हो गया।
5. वका नगर- दरगाह से कुछ दूरी पर अवस्थित वकानगर में हजरत सुलेमान लंगर जमीं का मकबरा है, जो हजरत बीबी कमाल के शौहर थे। एैसी मान्यता है कि यहां की जमीन जन्नत की जमीन से बदली गयी थी।दरअसल काको अपने आप में वो अफसाना है कि जितना सुनते जाइए उतना ही दिलचस्प होता जाता है. जो भी इसका बयान सुनाता है, एक नई दास्तान सुनाता है. एक शहर, जिसका खयाल आते ही जहन में तहज़ीब की शमाएं रोशन हो उठती हैं. जिसका जिक्र छिड़ते ही दिल की गलियां गुलशन हो उठती हैं. जिसका नाम लेकर आशिक अहदे वफा करते हैं, सुखन-नवाज़ जिसके होने का शुक्र अदा करते हैं. क्या इतनी खूबियों से भरपूर मकाम सिर्फ एक अदद शहर हो सकता है ?दरअसल काको वो तिलिस्म है जिसमें कैद हुआ शख्स कभी आज़ाद नहीं होना चाहता. जो दुर्भाग्य के कारण यहां से निकल भी जाते हैं वो अपनी आंखों में काको के मंजर लिए भटकते हैं और इसकी यादों को अपने कलेजे से हरदम लगाए रहते हैं. इतिहास गवाह रहा है कि ऐसे दीवाने जहां भी जाते हैं एक नया काको बसा देते हैं.काको वाले कहीं भी रहें काको आदाब कभी नहीं भुलाते. पुरखों से विरासत में मिले तहज़ीब के लबालब खजाने को कैसे दोगुना-चौगुना करना है, ये उन्हें खूब आता है. अपने अंदाज़-ए-बयां से वे दुश्मन को भी अपना दीवाना बना सकते हैं. जीवन में कितनी भी कड़वाहट क्यों न हो काको वालों की जुबान पर इसका असर कभी नहीं दिखेगा. हिंदुस्तान ने अपनी साम्प्रदायिक एकता की जान इस शहर में समोई हुई है. फिरकापरस्ती आज भी इस शहर में आते हुए शर्माती है. नज़ाकत काको की पहचान है. इस बे-मिसाल बा-कमाल शहर की लोक मान्यताएं हमें बताती हैं कि कभी ये भगवान राम के छोटे भाई शहर हुआ करता था. जहानाबाद रेलवे स्टेशन के लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर जहानाबाद बिहार.शरीफ रोड मे अवस्थित काको प्रखड का मुख्यालय है। स्थानीय कथनानुसार श्री रामचन्द्र के सौतेली माँ रानी केकइ कुछ समय यहाँ वास ग्रहण की थी। उन्हीं के नाम पर इस ग्राम का नाम काको पङा। ग्राम के उत्तर-पश्चिम में एक मन्दिर है, जिसमें सूर्य भगवान की एक बहुत पुरानी मूर्ति स्थापित है। प्रत्येक रविवार को बङी संख्या मे लोग पूजा करने के लिए आते है। सूर्य मंदिर का प्राचीन इतिहास है। सूर्योपासना के इस विख्यात केन्द्र मे प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु छठ व्रत के लिए पहुंचते हैं। बताया जाता है कि इस स्थान पर छठव्रत करने पर सारी मनोकामनाएं पूरी होती है। यहां भगवान विष्णु की प्राचीन मूर्ति है।ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में पनिहास के दक्षिणी पूर्वी कोने पर राजा ककोत्स का कीला था। उनकी बेटी केकैयी इसी मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना करती थी। ककोत्सव की बेटी ही कलांतार में अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी बनी थी। भगवान विष्णु की प्रतिमा आज काको सूर्य मंदिर में स्थापित है। बताया जाता है कि 88 एकड़ में फैले इस पनिहास का जब सन् 1948 में खुदाई कराई जा रही थी तो भगवान विष्णु की प्राचीन प्रतिमा मिली था। उस प्रतिमा को प्राण प्रतिष्ठा के उपरांत पनिहास के उत्तरी कोने पर स्थापित किया गया। सन् 1950 में आपसी सहयोग के जरीए भगवान विष्णु का पंचमुखी मंदिर का निर्माण कराया गया जो आज अस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस मंदिर के चारों कोने पर भगवान भाष्कर, बजरंग बली, शंकर पार्वती एवं मां दुर्गे की प्रतिमा स्थापित है। बीच में भगवान विष्णु की प्राचीनतम प्रतिमा को स्थापित किया गया है।
इतिहास हमें बताता है कि इस शहर ने अपनी आंखों से यहां कई-कई हुकूमतों को आते और जाते देखा है. लेकिन ये भी सच है कि काको के इतिहास का सबसे लोकप्रिय हिस्सा नवाबी और उसके बाद के कालखण्ड में लिखा गया है. काको कला, साहित्य एवं संस्कृति के गढ़ के तौर पर पहचाना जाने लगा. जब अंग्रेज़ों ने संग्राम का और उसके बाद अंग्रेज़ों के भीषण दमन का साक्षी भी बना.. कुल मिलाकर काको का इतिहास इतना समृद्ध है कि अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि काको जो भी था अपने अतीत में था और वो काको अब गए दिनों का किस्सा हो गया. लेकिन ऐसा वही कहते हैं जिन्होंने काको को सिर्फ इतिहास की किताबों में पढ़ा है. आज के काको को नहीं देखा.सच तो ये है कि समय के साथ ये शहर अपने क्षेत्रफल को चाहे जितना बड़ा कर ले इसका सांस्कृतिक गुरुत्व-केंद्र अटल रहता है. इतना बड़ा दिल दुनिया के बहुत कम शहरों के पास होता है कि हर आने वाले को अपना बना ले और खुद को उसका बना दे. असल में काको को नए काको और पुराने काको के खांचों में बांटने वाले भी वही हैं, जो इस शहर के संस्कारों से अछूते रह गए हैं.काको सिर्फ एक है और वो कभी नया या पुराना नहीं हो सकता, क्योंकि काको एक शहर का नहीं बल्कि एक संस्कृति का नाम है. आपको एक ही सूरज से रोशन मिलेगी जिसका नाम काको है. काको वाले तो काको की मिट्टी के हर ज़र्रे को अपनी ज़िंदगी का आफताब समझते हैं. इसीलिए चौक की गलियों में चहल कदमी करते हुए उन्हें गेसु-ए-जानां के खम सुलझाने जैसा लुत्फ आता है, काको नगर की सड़कों पर भी वे उसी तरह आवारगी करते हैं जैसे बाद-ए-सबा किसी चमन से होकर गुजरती है.वास्तव में काको अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दिल से लगाए हुए अपने समय से कदम मिला रहा है. जिस तरह हर दिन व्यक्ति के कपड़े बदलने मात्र से उसकी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता, उसी तरह समय के अनुसार इस शहर में हुए तमाम बाहरी परिवर्तनों के बाद भी काको की रूह और उसके किरदार में जरा भी तब्दीली नहीं हुई है. काको अगर बदला भी है तो बेहतरी के लिए बदला है. काको की इन खूबियों के बावजूद अगर किसी बयान में सिर्फ खूबियां ही बताई जाएं तो ये बयान अधूरा ही कहा जाएगा. ये भी सच है कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद इस शहर के स्वभाव में कई ऐसी बातें हैं जिन्हें किसी भी नज़र से तहज़ीब के दायरे में नहीं रखा जा सकता. आप किसी भी काको से इन कमियों का ज़िक्र कीजिए वह सर झुकाकर अपनी शर्मिंदगी का इज़हार करेगा,
सैय्यद आसिफ इमाम काकवी
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