
पुस्तक समीक्षा
बेचहरे में चेहरे की तलाश करता कविता संकलन : मेरे गाँव का पोखरा
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भारत में धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा विचार है जिसका बीजारोपण न करके सीधे वृक्षारोपण
किया जाता है। इसलिए इस विचार-वृक्ष के
फलने फूलने और लहलाने में सदैव ही संदेह बना रहता है ।
जब
मैं प्राथमिक विद्यालय में था ,
शायद तीसरी या चौथी जमात में तब मेरा एक
दोस्त हुआ करता था रशीद। उस छोटे सी उम्र में भी मुझे पता था कि वह एक मुस्लिम है और उसे पता था कि मैं एक हिन्दू
हूँ। उस कालावधि में जुम्मा के दिन मुस्लिम बच्चों के लिए आधे घंटे का अतिरिक्त
लंच पीरियड हुआ करता था। जिसमें सारे मुस्लिम बच्चे जुम्मे की नमाज के लिए जाया
करते थे। तब गैर मुस्लिम बच्चों को इस बात के लिए बड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि उन्हें
भी ऐसी छुट्टी क्यों नहीं मिलती। आखिर बच्चों के लिए छुट्टी सबसे बड़ी खुशी का कारण
जो होती है।
अब प्रश्न है कि एक सेकुलर देश में
पहली या दूसरी जमात के बच्चों के बालमन
में इतने गहरे धार्मिक पहचान एवं विभेद की भावना क्यों कर भरी जाती है? छोटा बच्चा एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क में क्यों इस आइडैनटिटि के साथ
स्कूल में दाखिल होता है कि वह हिन्दू है या मुस्लिम है या ईसाई है? क्या उसके बालमन में इसका कोई प्रभाव पड़ता है? क्या उसकी धार्मिक पहचान या धार्मिक सरोकार उसके मन –मस्तिष्क पर एक
अतिरिक्त बोझ है? एक
बालमन को धर्म के कड़े ताप में रखकर असहिष्णुता की हद तक कठोर क्यों कर दिया जाता
है? ये सारे प्रश्न उत्तर की अपेक्षा करते हैं । धर्मनिरपेक्षता का सही मूल्य
तो तभी होता कि हर व्यक्ति को शिक्षा के एक बेसिक स्तर का ज्ञान हासिल कर लेने के
बाद धार्मिक शिक्षा मिले ताकि वो भले बुरे का, सही गलत का
निर्णय कर सके। दूसरे धर्म का सम्मान कर सके एवं स्वयं के बारे में श्रेष्ठता बोध से पीड़ित न हो। एक बच्चा छुटपन में
स्कूल अपनी धार्मिक पहचान के साथ जाता है । यह धार्मिक पहचान उसके भीतर फलता-फूलता
रहता है और वही बच्चा जब बड़ा होता है तो उससे हमारा समाज यह उम्मीद करता है कि वह
सेकुलर विचारों का वाहक होगा। यह उम्मीद क्या गैर वाजिब नहीं है, बेईमानी नहीं है?
दुखद है कि इस तरह की चर्चा इस देश में कभी नहीं
होती। साहित्य में तो हरगिज नहीं होती। धार्मिक कट्टरता हिन्दी साहित्य का सबसे
प्रिय विषय है , इससे जुड़ी कविताओं में बहुत ही गंभीर सवाल
उठाए जाते हैं लेकिन जो यथार्थपरक मूल सवाल है वह कभी किसी की कविता की
विषय वस्तु नहीं बनता है।
ऐसे ही में जब एक कवि लिखता है :
बच्चे स्कूल जा रहे हैं
अपनी पीठ पर लादे हुए—
कुरान की आयतें
गीता के श्लोक
बाइबल की सूक्तियाँ
और-और धर्मों की
अनेक विचारधाराएँ ...
बच्चे स्कूल जा रहे हैं
उनकी पीठ पर
बैठा हुआ है पहाड़
पृथ्वी इसके बोझ से
असहज महसूस कर रही है
दिशाएँ खोती जा रही हैं
अपना संतुलन
(बच्चे स्कूल जा
रहे हैं कविता से )
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तो एक पाठक का
चौंकना स्वाभाविक है। उसे कवि से सहसा उम्मीद बांधने लगती है। बतौर एक
पाठक यह महसूस होता है कि इस कवि ने नई बात कहने की हिम्मत दिखाई । समस्या
के मूल की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। हम यह जान
पाते हैं कि इस कवि की रुचि समस्या के समाधान में है न कि व्यर्थ का वितंडा
खड़ा करने में।
अभी मेरे हाथों में नीलोत्पल रमेश जी का नया
नवेला एवं पहला कविता संकलन है “ मेरे
गाँव का पोखरा”। इनकी कविताओं से गुजरते हुये यह प्रतीत होता है कि वे अपने परिवेश के कवि हैं,
अपनी मिट्टी के, अपनी गली -कूचे के कवि, अपने गाँव-अहरा –पोखरा के कवि। छोटी-छोटी बातें जिन्हें आम आम आदमी नज़रअंदाज़
कर देता है लेकिन जिनका प्रभाव एवं निहितार्थ
बड़ा होता है, इनकी
कविताओं के विषय वस्तु बनते हैं।
नीलोत्पल रमेश धवल आकाश के कवि नहीं बल्कि धरती
के कवि हाँ। उनकी कविताओं में आवेग, उद्वेग समंदर की लहरों की तरह ठांठे नहीं मारता
बल्कि धूल के गुबार की तरह उठता है लेकिन वह किसी विनाशकारी सुनामी की तरह नहीं होता बल्कि रचनात्मक
होता है। वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारियों से अच्छे से परिचित हैं। वे दुनिया में
बदलाव तो चाहते हैं पर दुनिया को खत्म करके नहीं।
नीलोत्पल रमेश की कविताओं में हाशिये के समाज की पीड़ा मर्मांतक रूप से दर्ज होती है एवं
पाठक के सामने एक चित्र सा खड़ा हो जाता है। उसे लगता है कि अरे! यह तो मेरा देखा हुआ दृश्य है। मानो कवि ने मेरे ही मन
की बात कह दी हो और पाठक अनायास ही कविता से जुड़ जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि
नीलोत्पल रमेश सायाश कविता करते हुये प्रतीत नहीं होते बल्कि अपने आस-पास से ,
लोगों की भाव भंगिमा से , आचार—विचार से कविता चुनते और उठाते
हुये प्रतीत होते हैं।
बच्चे
अभी चलना भी
नहीं
सीख पाए हैं ठीक से
कि
निकल पड़ते हैं
पिता
के साथ—
सूअर
चराने, मूस मारने, मछली पकड़ने
और-और
बहुत सारे काम करने
सृष्टि
की गतिशीलता के साथ ही
इनकी
भी होती है सुबह
और
इनके पैरों में
लग
जाते हैं पंख
जो
उड़ान भरने को
हो
जाते हैं बेताब
(“पिता के साथ” कविता से)
वर्तमान समय के राजनैतिक हालात पर भी कवि की पैनी
नज़र है एवं राम के ढोंगी भक्तों की भी खबर लेते हुये वे दिखते हैं। जिन्होने राम के
चरित्र को कभी नहीं पढ़ा, उसे जानने , समझने की चेष्टा नहीं
की, वैसे लोग जब राम के नाम पर ध्वजवाहक होते हैं तो उसका जो दुष्परिणाम होता है , जो सामाजिक
ताना बाना छिन्न-भिन्न होता है, उससे व्यथिति कवि का मन विह्वल
मन पुकार उठता है कि हे राम! कब आओगे?
हे
राम !
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हे
राम!
कब
आओगे?
आज
तुम्हारी आवश्यकता
आन
पड़ी है
ताकि
भारत की जनता
ढोंगी
भक्तों से
छुटकारा
पा सके!
आ
रहे हो न!
यहाँ
की जनता के लिए
उनकी
हिफाजत के लिए
अब
आ भी अाओ
कुछ
बिगड़ा नहीं है
ताकि
भारत की जनता को
त्राण
मिल सके
इन
ढोंगी रामियों से।
नीलोत्पल
रमेश की विशेषता है कि वे अपनी कविताओं में बहुत ही सहज तरीके से बड़ी बात कह जाते
हैं। उनकी कविताओं में दर्ज मनोभाव अभिव्यंजना को बहुत ही विस्तृत फ़लक प्रदान करते
हैं। अब इसी कविता को देखिये :
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सभी
आजाद हैं
किसी
को मनाही नहीं
जिसके
मन में जो आये-कहे
क्या
फर्क पड़ता है!
मैं
पानी
को आग
जंगल
को समुद्र
और
वृक्ष को पहाड़ कहूँगा
क्या
फर्क पड़ता है!
मैं
आदमी
को जानवर
संजीव
को संजू
और
सड़क को प्यार कहूँगा
क्या
फर्क पड़ता है!
मैं
लालू
को चारा
राबड़ी
को खटाल
और
भारत को राम कहूँगा
क्या
फर्क पड़ता है!
(“क्या
फर्क पड़ता है” कविता से )
निर्बाध
आज़ादी के इस पगलाए समायावधि में कितनी सहजता से कवि कह देता है कि “भारत को राम कहूँगा”। कितना बड़ा इसका निहितार्थ
है, कितना दूरगामी इसका
प्रभाव है। यही बात कहने के लिए न जाने
कितना हाय-तौबा मचाने के जरूरत पड़ती। कितने
लोगों के हाथ में पत्थर पकड़ाना होता, कितने दंगे कराने होते। कविता की
विशेषता यही होती है कि कवि अपनी बात कह भी देता है, समझने
वाले समझ भी जाते हैं , उसका आवश्यक प्रभाव भी होता है लेकिन
वह विनाशकारी नहीं होता। वह परिवर्तन तो करता है पर हिंसा के लिए उकसाकर नहीं ।
नीलोत्पल
रमेश की कविता वाचाल एवं उलझावों की शिकार
नहीं है वह अपने सीमित साधन में ही अपने साध्य को लेकर सुस्पष्ट है। वे झारखंड के कोयलाञ्चल में निवास
करते हैं। वहाँ के लोगों की रोज की पीड़ा से दो-चार होते हैं इसलिए कोयला और
कोयले से जुड़े लोग उनकी कविताओं में बार-बार आते हैं। एक खनिज संपदा संपन्न राज्य में खनिज सम्पदा का किस तरह से अविवेकी एवं बलात दोहन किया जाता रहा है इसकी पीड़ा नीलोत्पल रमेश बहुत गहरे महसूस
करते हैं। खनिज सम्पदा के इस दोहन से न
केवल यहाँ की जमीन कराहती है बल्कि यहाँ
के रहने वाले लोग भी अनेक तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
भुरकुंडा
एक
स्टेशन है कोयलांचल का
सवारियाँ
कम होती हैं यहाँ
लदान
ज्यादा
लदान
कोयलों की
चहुँओर
धरती
घर, सड़क, वनस्पति
हर
रेशे गोशे पर जमी हुई है
कोयले
की धूल
ट्रेन
पकड़नी हो तो
पार
करना होता है
काली
धूल का समंदर
कोयले
की धूल यह
चाटती
रहती है भूमि की उर्वरा
दोपायों
के भीतर उतर
पोसती
हैं बीमारियाँ
नसीहतें
देते हैं चिकित्सक
सीख
देते हैं बुजुर्ग
रोज
गुड़ खाओ...गुड़
(“भुरकुंडा”
कविता से )
इसी तरह एक कविता है “कोयला ढोने वाले” जिसमें, कोयला ढोने वाले मजदूरों के दुख
–तकलीफ की बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।
कई
मज़दूर ऐसे हैं
जिन्हें
अपने घर गिद्दी से
रांची
तक पहुँचने में
बीच
के थानों के
वसूली
करते पुलिस वाले
मिल
ही जाते हैं
जो
पहले पाँच-दस में
मान
जाते थे
लेकिन
अब तो उन्हें भी
तीस-चालीस
से कम नहीं चाहिये
नीलोत्पल
रमेश की कवितायें हमारे समय और समाज की त्रासद
विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को केंद्रगत करते हुये गहन सरोकारों एवं प्रतिबद्धताओं का मार्मिक
चित्र उकेरती है। इनकी भाषा सहज , सरल एवं बोधगम्य है। गंभीर बातों को भी ये अपनी कविताओं में बहुत सहजता से
रख देते हैं।
एक
कवि का काम आईनासाज का काम नहीं होता है वह आईना दिखाने का काम करता है और इसके लिए
जरूरी नहीं है कि उसका आईना बहुत खूबसूरत हो बल्कि जो चीज जरूरी है वह यह कि आईना चटका हुआ नहीं हो
। आज जब पढ़े-लिखे तथाकथित बुद्धिजीवि लेखक
, पत्रकार, डॉक्टर आदि को हम देखते
हैं तो लगता है कि उनके घोषित जीवन आदर्शों एवं उनके कर्मों में कितना अंतर है। हर
आदमी अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाए घूम रहा है और जब मुखौटा हटता है
तो वह सारे बाज़ार पूरी तरह नंगा खड़ा दिखता है।
नीलोत्पल रमेश अपनी एक कविता “बेचेहरे का आदमी” में इसी सच को आईना दिखाते नज़र
आते हैं।
आजकल
मुझे
एक ही आदमी के
दीखते
हैं कई चेहरे
जो
अक्सर परेशान करते हैं
और
मैं हो जाता हूँ बेचैन
मैं
निकला तलाश में
ताकि
खोज सकूँ
एक
चेहरा का आदमी
लेकिन
नहीं खोज पाया
फिर
अपने से ही पूछ बैठा—
भई, बताओ
कोई
ऐसा आदमी
जिसके
सिर्फ
एक चेहरा हो
जिसे
मैं
कहीं
भी, कभी भी
पहचान
सकूँ!
फिर
मेरे अंदर
हमारे
समय की राजनीति और उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया भी अक्सर अजीब मंजर उपस्थित करती है।
जो किसी के लिए बुरा है वही बात कर्ता के बदलते ही सही प्रतीत होने लगता है। यह दरअसल
राजनीतिक-मानसिक विभ्रम की स्थिति है। जो आम
आदमी को सही और गलत का निर्णय करने में भेद करने से रोकती है। लेकिन एक कवि के रूप
में न केवल इसकी पहचान करना बल्कि गलत के विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज को मुखर करना भी
कवि का कर्तव्य है और कवि नीलोत्पल रमेश इसमें पीछे नहीं हटते। वे अपनी कविताओं में समय की विसंगतियों को पाठकों के
सामने कुछ ऐसे प्रस्तुत करते हैं कि पाठक का
मर्म आंदोलित हो उठता है।
लड़कियाँ
चुपचाप
कर रही थीं प्रतिरोध
कि
डंडे बरस पड़े
एकाएक
आसमान से
नहीं-नहीं
दिशाओं
के अपने हाथ हो गए हैं
और
अदृश्य शक्तियाँ
बरसा
रही हैं लाठियाँ
फूल-सी
कोमल
सत्ता
के लिए बनी मुसीबत
लड़कियों
पर
(“सत्ता
के लिए मुसीबत” कविता से )
नीलोत्पल
रमेश के सद्यप्रकाशित कविता संकलन “मेरे गाँव
का पोखरा” में संकलित कवितायें अपने सुस्पष्ट कथ्य एवं साफ दृष्टिकोण के लिए अवश्य
पढ़ी जानी चाहिए। इस संकलन में कुल 67 कवितायें
संकलित हैं । संकलन प्रलेक प्रकाशन मुंबई से प्रकाशित होकर आया है। कागज की गुणवत्ता, अच्छी छपाई एवं सुंदर आवरण के साथ
यह कविता संकलन संग्रहणीय बन पपड़ा है।
नीरज
नीर / 11.09.2020
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