
संजय कुमार 'कुंदन' की दो ग़ज़लें -------------------------------------------- 1. सुब्ह के ख़्वाब की ताबीर किया करते हैं दिन निकलता है तो शोलों में जला करते हैं भूली-भटकी हुई चिंगारी कोई मिल जाए बुझ चुकी आग से तफ़रीह किया करते हैं हम कहाँ के थे, कहाँ के हैं, कहाँ जा पहुँचे बेसबब ऐसे सवालों पे जिया करते हैं ढूँढ कर ख़ुश उसे करने के बहाने कितने फिर यूँ हो जाता है, मग़मूम रहा करते हैं धूप निकली हो मगर सर्द हवाओं की चुभन बारहा रिश्ते यूँ ही सर्द हुआ करते हैं गुफ़्तगू तीर है उसकी ज़ुबाँ कमान सी है सख़्तदिल हैं ज़रा सो वार सहा करते हैं और जो लोग हैं करते हैं हर इक लम्हा कमाल 'कुन्दन' अपने में हैं ख़ुश, कुछ न किया करते हैं *** 2. नया एक हादसा फिर से हुआ क्या शरीफ़ुल-शह्र ख़ुद से ही डरा क्या कोई इलहाम का नाटक किया क्या अदाकारी में कुछ कुछ है लिखा क्या अभी है रात बाक़ी, चाय पी लें? अभी ही शह्र सारा सो गया क्या धुआँ सा है बहुत काग़ज़ पे फैला तेरा दिल आज है फिर से जला क्या लगा पहले था कोई मोजज़ा सा तमाशे के सिवा वो था भला क्या ये क्या हिन्दू-मुसलमाँ खेलते हो तुम्हें भी है इलेक्शन जीतना क्या उसे तो देवता माना था तूने तेरा हिस्सा भी आख़िर खा गया क्या तुम्हारी सोच उसके पास गिरवी कोई भी राहज़न उससे बड़ा क्या ख़यालो की किसी हद पे खड़ा हूँ परे इससे भी है इक रास्ता क्या मसल के रह गया मासूम सा दिल मैं इस बाज़ार में था कर रहा क्या किसी भी बात पे क़ायम तो रह तू तुझे हर मोड़ पे है वसवसा क्या धनक लेकर मैं बाँहों में ये सोचूँ करूँ इन सात रंगों का भला क्या अजब सी ज़िद है ये ज़िद ही है 'कुन्दन' मगर इस ज़िद से है तुझको मिला क्या *** - संजय कुमार 'कुंदन'वरिष्ठ शायर
ताबीर-स्वप्नफल,
मग़मूम- दुखी,
इलहाम- देववाणी,
अदाकारी-अभिनय,
मोजज़ा- चमत्कार,
राहज़न- डाकू,
वसवसा-दुश्चिंता,
धनक- इंद्रधनुष.
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