आज केतकी कई दिनों बाद घर का कुछ सामान लेने सोसाइटी में नीचे उतरी ,इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे,जो दिख रहे थे वह भी मुंह छुपाए और अपने अपने घेरे में खड़े अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में थे। डर के इस माहौल में दुआ सलाम की तो गुंजाइश तो छोडो,मास्क पहनकर एक दूसरे को पहचान पाना ही मुश्किल हो रहा था।
"अरे नीचे तक आ गई तो जरा अखबार भी लेती चलूँ। "धीरे-धीरे बच्चों के खाली गार्डन को देखती हुई केतकी जैसे ही अखबार उठाने नीचे झुकी ,मेन गेट से सटी हुई उसकी कामवाली बाई की झलक दिखाई दी। केतकी ने बाई से कहा *"अरे इधर क्या कर रही है?* पता नहीं तुझे सब बंद है? और क्या यह चेहरा भी नहीं ढका तूने । जरा सा अपने दुपट्टे से ही ढक लेती । *क्या डर नहीं लगता तुझे? "*
वह बोली "डर!मैडम हम डर लगा कर क्या करेंगे कई दिन से इधर आकर आपको झाक जाती हूँ । मोबाइल में बैलेंस भी खत्म हो गया तो आपको कैसे बताते सब । कुछ अचानक से लौकडाउन हो गया महीने के पैसे भी नहीं ले पाए आपसे"
उसके यह बोलने से पहले ही उसके चेहरे से झलकती याचना के भाव दिल को भेदते हुए चले गए। केतकी सोच रही थी अगर उसका चेहरा ढका होता तो "क्या मैं उसके भाव पढ पाती?
डर को पीछे छोड़ अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर इस महामारी के बीच पगार लेने आ पाती? "
मैंने मुझसे अनजाने में हुई गलती की क्षमा मांगते हुए उसे एक के बदले 2 महीने की पगार दे दी। लौटते वक्त यह सोच रही थी कि ऐसे जाने कितने लोग हैं जो अपनों के पेट की भूख मिटाने के लिए इस डर को खत्म कर जिंदगी दांव पर लगा देते हैं । बात बड़ी गहरी थी केतकी के चेहरे पर नन्ही सी मुस्कुराहट दी भी थी कि उसकी दी गई पगार कामवाली के बेखौफ *डर के ऊपर जीत का काम कर गई थी।
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