
शायर जगन्नाथ आज़ाद की कुछ रचनाएँ
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जो था दिल का दौर गया
जो था दिल का दौर गया मगर है नज़र में अब भी वो अंजुमन
वो खयाल-ए-दोस्त चमन चमन, वो जमाल-ए-दोस्त बदन बदन
अभी इब्तिदा-ए-हयात है, अभी दूर मंज़िल-ए-इश्क है
अभी मौज-ए-ख़ूं है, नफ़स नफ़स, अभी ज़िन्दगी है कफ़न कफ़न
मेरे हम-नफ़स गया दौर जब फ़क़त आशियानों की बात थी
के है आज बर्क़ की राह में, मेरा भी चमन तेरा भी चमन
तेरे बहर-ए-बख्शीश-ओ-लुत्फ़ जो अता हुई थी कभी मुझे
मेरे दिल में है वही तश्नगी, मेरी रूह में है वही जलन
न तेरी नज़र में जँचे कभी, गुल-ओ-गुन्चा में जो है दिलकशी
जो तू इत्तेफ़ाक से देख ले कभी, ख़ार में है जो बाँकपन
ये ज़मीं और उसकी वसीयतें, न मेरी बनें न तेरी बनें
मगर इस पे भी है यही ज़िद हमें, ये तेरा वतन वो मेरा वतन
वही मैं हूँ जिसका हर एक शेर एक आरज़ू का मज़ार है
कभी वो भी दिन थे के जिन दिनों, मेरी हर गज़ल थी दुल्हन दुल्हन
ये नहीं के बज़्म-ए-तरब में अब कोई नग़्मा ज़न ही न रहा
मैं अकेला इसलिये रह गया के बदल गय़ी है वो अंजुमन
मेरी शायरी है छुपी हुई मेरी ज़िन्दगी के हिजाब में
ये हिजाब उठे तो अजब नहीं पड़े मुझ पे भी निगाह-ए-वतन
वो अजीब शेर-ए-फ़िराक़ था के है रूह आलम-ए-वज्द में
वो निगाह-ए-नाज़ जुबाँ जुबाँ, वो सुकूत-ए-नाज़ सुख़न सुख़न।
मुमकिन नहीं कि बज़्म -ए-तरब फिर सजा सकूँ
मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ
ये क्या तिलिस्म है कि तेरी जलवा-गाह से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ
ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिनको उठा सकूँ
किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन को मना सकूँ
तेरी हसीं फ़िज़ा में मेरे ऐ नए वतन
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ
'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे है रक़सां के ज़मज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ
मंज़िल-ए-जानाँ को जब ये दिल रवाँ था दोस्तो
मंज़िल-ए-जानाँ को जब ये दिल रवाँ था दोस्तो
तुमको मैं कैसे बताऊँ क्या समाँ था दोस्तो
हर गुमाँ पहने हुए था एक मल्बूस-ए-यक़ीं,
हर यक़ीं जाँ दादा-ए-हुस्न-ए-गुमाँ था दोस्तो
दिल कि हर धड़कन मकान-ओ-लामकाँ पर थी मुहीत,
हर नफ़स राज़-ए-दोआलम का निशाँ था दोस्तो
क्या ख़बर किस जुस्तजू में इस क़दर आवारा था
दिल के जो गन्जीना-ए-सर्र-ए-निहाँ था दोस्तो
ढूँढने पर भी न मिलता था मुझे अपना वुजूद
मैं तलाश-ए-दोस्त में यूँ बेनिशाँ था दोस्तो
मर्कद-ए-इक़्बल पर हाज़िर थी जब दिल की तड़प,
ज़िन्दगी का एक पर्दा दर्मियाँ था दोस्तो
रू-ब-रू-ए-जल्वा-ए-मर्कद वुजूद-ए-कम अयार,
ज़र-ए-नाक़िस शर्मसार-ए-इम्तेहाँ था दोस्तो
पर्तव-ए-दिल में निहाँ थी तह-बतह ये ख़ामोशी,
इश्क़ का वो भी इक इज़्हार-ए-बयाँ था दोस्तो
जल्वागाह-ए-दोस्त का आलम कहूँ मैं तुमसे क्या
जल्वा हि जल्वा वहाँ था मैं कहाँ था दोस्तो
सज्दगाह-ए- ख़ुर्शियाँ था याँ न जाने क्या था वो
जो मेरी नज़रों के आगे आस्ताँ था दोस्तो
दिल ने हर लम्हे को देखा इक निराले रंग में
लम्हा-लम्हा दास्ताँ दर दास्ताँ था दोस्तो
जिसके शेर-ओ-नग़्मगी पर वुस्अत-ए-आलम थी तंग
हर सुबह को वो दोपह्रे बेकराँ था दोस्तो
सो रहा था ख़ाक के नीचे जहान-ए-ज़िन्दगी
राज़-ए-हस्ती मेरी नज़रों पर अयाँ था दोस्तो
काश तुम भी मेरी पलकों का नज़ारा देखते
ये नज़ारा कहकशां दर कहकशां था दोस्तो
अहबाबे-पाकिस्तान के नाम
एक नया माहौल, इक ताज़ा समां पैदा करें
दोस्तो ! आओ मोहब्ब त की ज़बां पैदा करें
हो सके तो इक बहारे-गुलसितां पैदा करें
अपने हाथों से न अब दौरे-खिज़ां पैदा करें
ताब के बेगानगी एहसास परतारी रहे
एक माहौले-वफ़ाए-दोस्तां पैदा करें
अय रफ़ीक़ो ! जंग के शोले तो ठंडे हो चुके
आओ अब इनकी जगह इक गुलसितां पैदा करें
दोस्तो ! जिस पर हमें भी नाज़ था तुमको भी फ़ख़्र
फिर वही सरमाय:ए-दर्दे निहां पैदा करें
बू कभी बारूद की जिसके क़रीब आने न पाये
एक ऐसा आलमे-अम्नो-अमां पैदा करें
कल लिखी थी हमने औरों के लहू से दास्तां
अपने खूने-दिल से अब इक दास्तां पैदा करें
कह रहा है हमसे यह मुस्त क़्बिले-बर्रे-सग़ीर
हिन्दो -पाक इक इत्तिहादे-जिस्मोर-जां पैदा करें
जज़्ब:ए-नफ़रत अगर दिल में निहां हो जायेगा
एक दिन आयेगा दोनों का ज़ियां हो जायेगा
क्या कहूं मैं अब जो हाले गुलसितां हो जायेगा
शोल:ए-बेबाक अगर ख़स में रवां हो जायेगा
हंस रही है आज इक दुनिया हमारे हाल पर
दोस्तो ! इस तरह तो दिल ख़ूंचकां हो जायेगा
हम अगर इक दूसरे पर मेहरबां हो जायें आज
हम पे गोया इक ज़माना मेहरबां हो जायेगा
जाद:ए-महरो-वफ़ा पर हम न गर मिलकर चले
जो है ज़र्रा राह का संगे-गरां हो जायेगा
इक हमारी और तुम्हारी दोस्तीं की देर है
जो मुख़ालिफ़ आज है कल हमज़बां हो जायेगा
फिर ग़ज़ल को लौट आयेगी मिरी फ़िक्रे-जमील
और ही मेरा कुछ अन्दागज़े-बयां हो जायेगा
और अगर यारो ! ज़रा भी हमने इसमें देर की
हर गुले-तर एक चश्मे -ख़ूँफ़शां हो जायेगा
मुझको हैरत है तुम्हें इसका ज़रा भी ग़म नहीं
जिस क़दर क़द्रें हमारी थीं परेशां हो गयीं
कुछ ख़बर भी है कि इस आतिश नवाई के तुफ़ैल
''ख़ाक में क्याआ सूरतें होंगी कि पिन्हां हो गयीं''
याद भी हैं कुछ वह रंगारंग बज़्म आराइयां
''आज जो नक़्शो-निगारे-ताक़े-निसियां हो गयीं''
दोस्तो ! तुमने दिया जब साथ इस्तिब्दाद का
ग़ालिब-ओ-इक़बाल की रूहें परेशां हो गयीं
परचमे-इख़्लास गर्दूं से ज़मीं पर गिर गया
अय कई बरसों की मेहनत ! तुझपे पानी फिर गया
मेरी नज़रों से जो मुस्तनक़्बिल को देखो दोस्तो
वह अंधेरा जो मुसल्लुत था हवा होने को है
मुद्दतों जो सीन:ए-माज़ी में सरबस्तास रहा
अब वह मुस्त क़्बिल के हाथों राज़ वा होने को है
कह रही है मुझसे आज अय दोस्तो तस्वीरे-हाल
आदमी पर आदमी का हक़ अदा होने को है
नाल:ए-सैयाद ही इस दौर की मंज़िल नहीं
ख़ूने-गुलचीं से कली रंगीं क़बा होने को है
''आंख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं''
क्या कहूं मैं आज मश्रिक़ क्या से क्यार होने को है
सीनाचाकों की जुदाई का ज़माना जा चुका
''बज़्मे-गुल की हमनफ़स'' बादे-सबा होने को है
सुबह की ज़ौ से दमक उठने को है बर्रे-सग़ीर
और ज़ुल्म़त रात की सीमाबपा होने को है
शायर
जगन्नाथ आज़ाद
जन्म 5 दिसम्बर 1918
मृत्यु 24 जुलाई 2004
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