
पीड़ा
______
खोज रही हूँ उस अमूर्त्त पीड़ा को
जो उग आयें हैं शरीर में काँटे की तरह
और चुभ जाते हैं मन में वक़्त बेवक्त ही...
समय की पीड़ा से लहूलुहान
कोमल त्वचा के नीचे
हड्डियों के मज़बूत सतह पर
अविश्वास की ठुकती कीलों की असहनीय पीड़ा को झेलती
सत्य के शापित शब्दों को गुनती हुई
रोती और छटपटाती हूँ मैं...
जानती हूँ
एक दिन मेरी आत्मा का गर्म लहू
सैलाब बनकर
पहुँचेगा तुम तक भी
तब तुम चाह कर भी
मेरे इस काँटे से बिंधे शरीर को पहचान नहीं पाओगे
और उस क्षण
मेरे शेष होते इस जीवन में
तुम्हारा आगमन
और मेरा गमन
कहीं समानांतर नहीं होगा ।
नया अर्थ
_______
नीम बेहोशी में
तुम्हारा अक़्स
अक्सर
जीता है मेरे अन्दर...
दौड़ता है रक्त बनकर
मेरी धमनियों में
जगता है मेरी आँखों में नींद बनकर
रात के अंधेरे में
जब
छूती है तुम्हारी परछाईं
मेरे लबों को...
तब
टूटे शब्द
टूटी भावनाएँ
तुमसे मिलकर एक नया अर्थ रच जाते हैं
तब तू चाँद सा मुस्कुराता है
और मैं सितारे सी टूट जाती हूँ।”
अमृत
_____
काश कि एक बार फिर
अँजुरी में भरकर
पी पाती तुम्हें
पूरा का पूरा ओ अमृत !
असीम सुख का पल्ला ओढ़
सो जाती फिर से किसी बोधि वृक्ष के नीचे
मेरे अंतस से कोई कोंपल फूटता
शाश्वता का
शांति का
प्रेम का...
अपनी जड़ें फैलाता
पहुँचता वह देश काल से परे
और पढ़ा देता पाठ चेतनता का
मेरी जड़ता को छूकर...।
एक टिप्पणी छोड़ें