
"मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ ज़नाब
इस का बेहद लिहाज कीजिएगा"
1921 के मौसम की ठंड थी और तारीख थी 14 दिसंबर जब अमरोहा में एक किलकारी गूंजी और जिसका नाम रखा गया सैयद सिब्त-ए-अशगर नक़वी। हालाँकि यह नाम जब मशहूरी की खुश्बू से लबरेज़ हुआ तो लोगों के ज़ेहन और दिल में यह जॉन एलिया की शक्ल में रौशन हुआ। वो जॉन एलिया साहब जो उनके लिहाज के लिए जमाने को सतर्क करते हुए कहते हैं -
"मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ ज़नाब
इस का बेहद लिहाज कीजिएगा"
जॉन एलिया जिनके कमरे में हर तरफ किताबें हैं, इतनी कि किताबों के सिवा कुछ भी नहीं (यकीनन जॉन तो होंगे हीं) और कोई कहीं दूर उनके शेर-ओ-शायरी के जरिए उनकी मुहब्बत में रंगती हुई जॉन के कमरे को सजाने की हसरत कर लेती है -
"मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं"
उस से भी अब कोई बात क्या करना
ख़ुद से भी बात कीजे कम-कम जी
मैं ख़ुद नहीं हूं और कोई है मेरे अंदर
जो तुम को तरसता है, अब भी आ जाओ
कोई नहीं यहां खामोश, कोई पुकारता नहीं
शहर में एक शोर है और कोई सदा नहीं
ख़ामोशी से अदा हो रस्मे-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूं करें हम
अब हमारा मकान किस का है
हम तो अपने मकां के थे ही नहीं
जा रहे हो तो जाओ लेकिन अब
याद अपनी मुझे दिलाइयो मत
हम आंधियों के बन में किसी कारवां के थे
जाने कहां से आए थे, जाने कहां के थे
और तो हमने क्या किया अब तक
ये किया है कि दिन गुज़ारे हैं
मेरी जां अब ये सूरत है कि मुझ से
तेरी आदत छुड़ाई जा रही है
दिल जो दीवाना नहीं आख़िर को दीवाना भी था
भूलने पर उस को जब आया को पहचाना भी था
काम की बात मैंने की ही नहीं
ये मेरा तौरे-ज़िंदगी ही नहीं
कभी-कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी और मनाने लगते हो
मैं अब हर शख़्स से उकता चुका हूं
फ़क़त कुछ दोस्त हैं, और दोस्त भी क्या
आप बस मुझ में ही तो हैं, सो आप
मेरा बेहद ख़याल कीजिएगा
तू भी चुप है मैं भी चुप हूं ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आयी क्या तू सचमुच आयी है
उस गली ने ये सुन के सब्र किया
के जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं
जॉन एलिया अपनी तबाही को खुद के ही सर लेते हैं -
"एक ही तो हवस रही है हमें
अपनी हालत तबाह की जाए"।
आज उनकी यौमे पैदाइश पर उनके कुछ शेर आपके हवाले।
- ज्योति स्पर्श
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