
हिंदी की प्रसिद्ध कहानियां
पत्रिका "पहल" के आभार के साथ
संकलन-अली निसार - कनाडा
दुलाई वाली
बंग महिला (राजेन्द्रबाला घोष), 1907
काशीजी के दशाश्वमेध घाट पर स्नान करके एक मनुष्य बड़ी व्यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ़ आ रहा था। एक हाथ में एक मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियां और सुंघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्यारह बजे थे। गोदौलिया की बायीं तरफ़ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में, थोड़ी दूर पर एक टूटे-से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खण्ड में बहुत अंधेरा था, पर ऊपर की जगह मनुष्य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्य धड़धडा़ता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहां एक कोठरी में उसने हाथ की चीज़ें रख दीं और, ‘सीता! सीता!’ कहकर पुकारने लगा।
‘क्या है?’ कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई। तब उस पुरुष ने कहा, ‘सीता! ज़रा अपनी बहिन को बुला ला।’
‘अच्छा’ कहकर सीता गयी और कुछ ही देर में एक नवीना स्त्री आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा—‘लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा।’
इस बात को सुनकर स्त्री कुछ आश्चर्ययुक्त होकर बोली—‘आज ही जाना होगा! यह क्यों? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था, तो सवेरे भैया से कह देते। मुंह से कह दिया, बस, छुट्टी हुई। लड़की कभी विदा की होती, तो मालूम पड़ता। आज तो किसी सूरत जाना नहीं हो सकता।’
‘तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है कि
आज ही नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आगरे से अपनी नयी बहू को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्होंने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है। हम सब लोग मुग़लसराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला। इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया। बस, अब करना ही क्या है! कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बांध-बूंधकर, घण्टे भर में खा-पीकर चली चलो। जब हम तुम्हें बिदा कराने आये ही हैं, तब कल के बदले आज ही सही।’
‘हां, यह बात है। नवल जो चाहें, करावें। क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जायेगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, ज़रूर ही उनके साथ जाओगे, पर मेरे तो नाकों दम आ जायेगी।’
‘क्यों? किस बात से?’
उनकी हंसी से और किससे! हंसी-ठट्ठा भी राह से अच्छी लगती है। उनकी हंसी मुझे नहीं भाती। एक रोज़ मैं चौके में बैठी पूड़ियां काढ़ रही थी कि इतने में न जाने कहां से आकर नवल चिल्लाने लगे, ‘ऐ बूआ! ऐ बूआ, तुम्हारी बहू पूड़ियां खा रही है।’ मैं तो मारे सरम के मर-सी गयी। हां, भाभीजी ने बात उड़ा दी सही। वह बोली,‘खाने दो, खाने-पहनने के लिए तो आयी ही है।’ और मुझे उनकी हंसी बहुत बुरी लगे।
‘बस, इसी से तू उनके साथ नहीं जाना चाहती? अच्छा, चलो, मैं नवल से कह दूंगा, यह बेचारी कभी रोटी तक तो खाती नहीं, पूरी क्यों खाने लगी।’
इतना कहकर वंशीधर कोठरी के बाहर चले आये और बोले, ‘मैं तुम्हारे भैया के पास जाता हूं। तुम रो-रुलाकर तैयार हो जाना।’
इतना सुनते ही जानकी देई की आंखें भर आयीं और असाढ़-सावन की ऐसी झड़ी लग गयी।
वंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससुराल है। स्त्री को बिदा कराने आये हैं। ससुराल में एक साले, साली और सास के सिवा और कोई नहीं है। नवलकिशोर इनके दूर के नाते में ममेरे भाई हैं, पर दोनों में मित्रता का ख़याल अधिक है। दोनों में गहरी मित्रता है। दोनों एक जान दो कालिब हैं।
उसी दिन वंशीधर का जाना स्थिर हो गया। सीता बहिन के संग जाने के लिए रोने लगी। मां रोती-धोती लड़की की बिदा की सामग्री इकट्ठी करने लगी। जानकी देई रोती-ही-रोती तैयार होने लगी। कोई चीज़ भूलने पर धीमी आवाज़ से मां को याद भी दिलाती गयी। एक बजने पर स्टेशन जाने का समय आया। अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाये? ससुरालवालों की अवस्था अब आगे की-सी नहीं कि दो-चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें। सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है। पैसेवाले के यहां नौकर-चाकरों के सिवा और भी दो-चार ख़ुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन पूछे? एक कहारिन है, सो भी इस समय कहीं गयी है। सालेराम की तबीयत अच्छी नहीं। वह हर घड़ी बिछौने से बातें करते हैं। तिस पर भी आप कहने लगे—‘मैं ही धीरे-धीरे जाकर कोई सवारी ले आता हूं। नज़दीक तो है।’
एक टिप्पणी छोड़ें