फिर शुरू हुई लाश को ठिकाने लगाने की लंबी प्रक्रिया। अंजान जगह और अंजान लोग। साथ में मासूम बच्चा और भूख प्यास की ज़बरदस्त शिद्दत। लाश को कोई हाथ लगाने के लिए तैयार नही।
Author's Name: अब्दुल ग़फ़्फ़ार
Credit: ज्योति स्पर्श
हमसफ़र (कहानी)
लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार
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रेहान ने तेल टैंकर की साइड वाली सीढ़ी से झुकते हुए अपने दो साल के मासूम बेटे रेहम को गठ्ठर की तरह खींच कर टैंकर की छत पर रख दिया, जिसे उसकी बीवी रुख़्सार ने उठा रखा था। फिर रुख़्सार को बाजुओं में उठाकर सीढ़ी तक पहुंचाया जो सात महीने की गर्भवती थी। रुख़्सार ने सीढ़ी के डंडे को कसके पकड़ा और ऊपर चढ़ने लगी कि अचानक उसका पैर फिसल गया। ग़नीमत ये रही की उसके दोनों हाथ सीढ़ी के डंडो पर मज़बूती से जमे हुए थे और रेहान वहां से हटा नही था वर्ना वो सीधे ज़मीन पर आ गिरती। फिर भी पेट पर कुछ चोट आ ही गई।
लॉक डाउन में जबसे कुछ ढ़ील मिली थी तब से मज़दूरों का पलायन ज़ोरों पर था। रेहान और उसके बीवी बच्चे दिल्ली के सीलमपुर में सिलाई का काम करते थे। कोरोना महामारी के चलते पिछले दो महीने से काम बंद था। एक महीना अपनी कमाई से गुज़र बसर हुआ तो दूसरे महीने का ख़र्च फैक्ट्री मालिक ने उठाया, उसके बाद फैक्ट्री मालिक ने भी हाथ खड़ा कर लिया।
रमज़ान का महीना चल रहा था और ईद महापर्व सर पर था इसलिए घर जाना ज़रूरी भी था। कोई विकल्प नही देख उन्होंने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और गांव के लिए निकल पड़े। रास्ते में चार पांच मज़दूर और साथ हो लिए।
सीलमपुर से पैदल चलकर नोएडा पहुंचे। वहां से आगे जाने के लिए कोई सवारी नही थी। मज़दूरों ने एक तेल टैंकर के ड्राइवर से मिन्नत समाजत किया तो वो ले जाने को तैयार हुआ। ड्राइवर ने बताया कि वो बरैली तक जा रहा है वहां तक उन्हें छोड़ देगा। फिर कुल आठ मज़दूर टैंकर की छत पर बैठे और खड़ी धूप से नज़रें मिलाते अपनी मंज़िल की तरफ़ चल पड़े।
मुरादाबाद के एक चौराहे पर सत्तू पीने के लिए ड्राइवर ने टैंकर रोका। रेहान उसकी बीवी रुख़्सार और बच्चे रेहम को छोड़कर बाक़ी सभी यात्री सत्तू पीने के लिए उतर गए। ये दोनों मियां बीवी मन मसोस कर टैंकर की छत पर ही बैठे रहे।
तभी वहां मनोज की साइकिल रुकते देख रुख़्सार का चेहरा खिल उठा। उसने चहकते हुए कहा -
"अरे - वो देखो मनोज भैया"
रेहान ने मनोज को देख बस की छत से हांक लगाते हुए कहा -
"का हो मनोज भाई, अरे कहाँ रह गए थे मर्दवा। दु दिन से अभी इधरे लटके हैं!"
मनोज भी वहीं काम करता था जहां रेहान करता था। लॉक डाउन लगते ही मनोज के सेठ ने उसका हिसाब कर दिया जिसमें मनोज को पांच हज़ार रुपये मिले। उस पैसे में से साढ़े तीन हज़ार की उसने साइकिल ख़रीदी और इन लोगों से दो दिन पहले ही अपने घर के लिए 1100 किलोमीटर के लंबे सफ़र पर निकल पड़ा था।
मनोज ने गमछा से मूंह पोंछते हुए रेहान के सवाल का मुस्कुराते हुए जवाब दिया -
" हां भाई। ये कोई हवाई जहाज़ थोड़ी है, साइकिल है साइकिल, जिसे ख़ून जलाकर चलाना पड़ता है। उतरो नीचे सतुआ पीया जाए।"
रेहान बोला - " ना भाई, रहने दो, तुम पीयो, हम लोग ऐसे ही ठीक हैं।"
मनोज रेहान की मजबूरी समझता था। उसने कहा - अरे क्या खाक ठीक हैं। उतरो नीचे।
रेहान बोला - पर, रेहम और रुख़्सार!
मनोज - अरे, उनके लिए ऊपर ही पहुंचा देते हैं। पहले तुम तो नीचे उतरो।
रेहान टैंकर की छत से नीचे उतर आया।
मनोज ने सत्तु वाले से चार ग्लास सत्तु बनाने के लिए कहा।
रेहान बोला - अरे, रेहम पूरी ग्लास थोड़ी ही पी पाएगा। तीन ग्लास ही रहने दो, वो अपनी अम्मी में से पी लेगा।
सत्तू वाले ने दो ग्लास उनकी तरफ़ बढ़ाया।
मनोज बोला - चलो ऊपर रुख़्सार को बढ़ाओ। रेहम की ग्लास में से जो बचेगा वो उसकी अम्मी पी लेगी। बेचारी, एक तो बच्चे को दूध पिलाती है, ऊपर से पेट में बच्चा भी पल रहा है। क़ायदे से तो अकेले उसके लिए ही तीन ग्लास चाहिए, लेकिन क्या किया जाए बजटे एलाऊ नही कर रहा है।
बहरहाल सत्तू पीने के बाद मनोज बोला - "इस हालत में रुख़्सार को ले जाना और वो भी टैंकर की छत पर बैठा कर, बिल्कुल ठीक नही था।"
रेहान बोला - "क्या करें भाई! दिल्ली में भी तो मरना ही था। खाने पीने के लाले पड़ रहे थे। अगर ईद का त्योहार न होता तो कुछ दिन और रुक कर देखते। अब निकल गए हैं, आगे जो रब की मर्ज़ी!"
अभी इन दोनों में बातचीत चल ही रही थी कि पुलिस वाले वहां आ धमके। दस बारह मज़दूरों को इकट्ठा देखते ही उनकी पुलिसिया ट्रेनिंग उफ़ान मारने लगी और लगे ताबड़ातोड़ लाठियां भांजने।
फिर क्या था। सबसे पहले मनोज साइकिल पर सवार हो भाग खड़ा हुआ फिर टैंकर के ड्राइवर खलासी भी भागे और छत पर बैठने वाले मुसाफ़िर भी।
आगे आगे मनोज की साइकिल और पीछे से घबड़ाया हुआ टैंकर का ड्राइवर। उसे कुछ सुझाई नही दिया। मनोज रोड के दाएँ से बाएं की तरफ़ मुड़ा ही था कि टैंकर उसपर चढ़ बैठा।
टैंकर की छत से रुख़्सार और रेहान ने मनोज को सड़क पर गिरकर तड़पते देख लिया और चिल्लाने लगे। लेकिन ड्राइवर कहाँ रुकने वाला था वो अपनी जान बचाकर भागता चला गया।
ये दोनों शौहर बीवी भी कहाँ मानने वाले थे, वो तबतक चिल्लाते रहे जब तक ड्राइवर ने टैंकर रोककर उन्हें ऊतार नही दिया।
फिर ये कुछ कह सुन पाते इसके पहले ही टैंकर नौ दो ग्यारह हो गया।
रेहान और रुख़्सार अपने बच्चे और सामान से भरे दो एयर बैग समेत दुर्घटना स्थल की तरफ़ दौड़ने लगे। तभी एक पुलिस की गाड़ी उनके पास आकर रुकी और माजरा पूछा। फिर उन्हें अपनी गाड़ी में बैठाया और दुर्घटना स्थल की तरफ़ चल पड़े।
जब ये लोग वहां पहुंचे तबतक मनोज मर चुका था। रुख़्सार मनोज भैया - मनोज भैया कहकर रोने लगी। उसकी चित्कार सुनकर अगल बग़ल में खड़े लोग भी आंखें पोंछने लगे। ऐसा लग रहा था कि मरने वाला मनोज उसका सगा भाई है। रेहान मर्द था फिर भी एक साथी की लाश देखकर तड़प उठा और रोने लगा। पलभर पहले हंस हंस कर बातें करना वाला इंसान लाश में तब्दील हो चुका था।
फिर शुरू हुई लाश को ठिकाने लगाने की लंबी प्रक्रिया। अंजान जगह और अंजान लोग। साथ में मासूम बच्चा और भूख प्यास की ज़बरदस्त शिद्दत। लाश को कोई हाथ लगाने के लिए तैयार नही।
फिर भी दोनों शौहर बीवी ने हार नही मानी और पुलिस वालों, आने जाने वालों और गांव वालों से चंदा और मदद लेकर मनोज का अंतिम संस्कार कर दोस्ती और इंसानियत का हक़ अदा किया।
अब इनके पैसे और हिम्मत दोनों जवाब दे चुके थे। इस बीच रुख़्सार अपने पेट में उठ रहे मीठे मीठे दर्द को दबाती रही। अब वहाँ से घर जाने की समस्या और भी गंभीर लगने लगी। चंद पैसे पास बचे थे, उनसे बेटे के लिए दूध और बिस्किट ख़रीदा और रोते हुए रेहम को चुप कराया।
रात हो चुकी थी। गांव वालों ने कोरोना के डर से उन्हें पनाह देने से इंकार कर दिया। कहां जाएं! किस से मदद मांगें! आख़िर थक हारकर ये बेचारे एक पेड़ के नीचे सो गए।
अगली सुबह एक और मुसीबत साथ लेकर आई। रुख़्सार के जिस्म से ब्लिडिंग शुरू हो गई। वो दर्द से कराहने लगी। सलवार ख़ून से रंगीन हो गया। पैरों में खड़े होने की ताक़त नही रही। उसे लगने लगा कि पेट में पल रहा बच्चा नुक़सान हो चुका है।
उसकी बोली लड़खड़ाने लगी। रेहान समझ रहा था कि रुख़्सार कहना कुछ चाह रही है और ज़ुबान से कुछ और निकल रहा है।
बड़ी मुश्किल से किसी तरह सरकारी अस्पताल पहुंचे। वहां डाक्टरों ने बाहरी के नाम पर उन्हें टरकाना चाहा लेकिन रेहान उनके पैरों पर गिरकर रहम की भीख मांगने लगा। डाक्टरों ने सैकड़ों तरह के सवाल जवाब और जांच पड़ताल के बाद रुख़्सार को कोरोना पॉज़िटिव ठहराया।
रुख़्सार की हालत बिगड़ती जा रही थी। डाक्टरों ने चार यूनिट ख़ून का इंतज़ाम करने के लिए कहा। रेहान समझ गया कि क़ुदरत की ये आख़िरी आजमाइश है जिसमें वो खरा नही उतर सकता। उसने डाक्टरों से कहा कि वो उसके बदन से ख़ून का एक एक क़तरा निचोड़ लें और उसकी रुख़्सार को बचा लें। लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी।
रुख़्सार ने दाएँ हाथ में शौहर का हाथ थामा और बाएं हाथ में रेहम का हाथ थामा और उसकी मासूम सूरत को एक टक निहारने लगी। ऐसा लग रहा था कि वो अपने लख़्ते जिगर को जी भर कर निगाहों में बसा लेना चाहती थी। उधर रेहान अपनी हमसफ़र को जी भर के देख लेना चाहता था जो बीच सफ़र में ही उसका साथ छोड़कर जा रही थी।
रेहम, अभी भी अपनी मां के जिस्म में दूध तलाश कर रहा था।
रेहान रुख़्सार की पत्थराई हुई आंखों की तपिश बर्दाश्त नही कर सका और ग़श खाकर वहीं गिर पड़ा।
लेकिन इन सब बातों से बेख़बर रेहम, अपनी मां का दूध हुमड़ हुमड़ कर खींच रहा था - - -
__ अब्दुल ग़फ़्फ़ार
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