
अम्मी के क़िस्से - भाग17
बेहद गंभीर और श्रद्धा में डूबा स्वर। जब करबद्ध होकर वेदनारायण बाबू वंदना करते, 'मां शारदे कहां तू, वीणा बजा रही है, किस मंजू ज्ञान से तू जग को लुभा रही है', तो उनके सुरीले कंठ में हम छात्र भी झूमने लगते। दसवी ए के कक्ष में बहुत ही सात्विक ढंग से सरस्वती पूजा होती। बात शेरघाटी के रंगलाल हाईस्कूल की है, जो रंगधार स्कूल के नाम से मशहूर था। हालांकि रंगधार कोई न हुआ। होने का ढोंग कुछ लंपट छात्र जरूर करते थे। और आपसी लड़ाई को अक्सर हिंदू-मुस्लिम रंग देने का प्रयास करते। लेकिन स्कूल की सरस्वती पूजा और मिलाद ऐसे मौके होते कि सब स्कूल के प्रेमिल लाल रंग में रंग जाते। वो मेरे लिए पहला अवसर था, स्कूल में सरस्वती पूजा में शामिल होने का। जब हमें दोने में प्रसाद मिला। हमने नहीं खाया। उसे संभाले-संभाले घर आए। ये आदत रही, मिलाद की मिठाई भी घर ही लेकर आते रहे। लेकिन प्रसाद लेकर आना। अंदर-अंदर डर था। रायगढ़ का बचपन अलग था, अब्बी ने कभी प्रसाद खाने से रोक-टोक न की थी, पर अम्मी। खैर। जब आंगन में पहुंचे, तो सकपकाना देख अम्मी ने घुड़का, 'क्या छुपा रहे हो।' बोलती बंद। प्रसाद। ज्योंही दोना आगे बढ़ाया, अम्मी ने लपक लिया। और उसमें रखी बेर, केला, सेव खाने लगीं। बाद में बोली, 'टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान एक मुस्लिम टीचर ने जब प्रसाद लेने से इनकार कर दिया, और मैंने ले लिया था, तो उसने बाद में मुझे काफिर कह दिया। जब उसे समझाया कि किसी का दिल न तोड़ो, ये हमारी हदीस बताती है। आप प्रसाद खातीं, न खातीं। कोई कितना खुलूस से दे रहा है, उसे लेने में क्या हर्ज है। और काफिर तो तब होंगे, जब एक खुदा को छोड़ दूसरे को खुदा मान लें।' इस प्रसंग को बताने के बाद अम्मी ने कहा, 'तुम्हारा खौफं वाजिब था। लेकिन अगर नियत साफ है, तो प्रसाद खाना गलत नहीं।' उसके बाद हम प्रसाद शौक से खाने लगे। इस वाक़्ये के बहुत बाद की बात है। शब्बू भाईजान को किसी काम के सिलसिले में भोपाल जाना था। अब्बी ने किसी लालाजी का पता दिया। बोले, 'ट्रेड यूनियन के साथी हें। उनसे मिलना,रुकने का इंतजाम हो जाएगा।' भाईजान से लालाजी बहुत अच्छे से मिले। कहा, 'बेटा आराम कर लो। फिर जिस काम से आए हो, कर लेना।' बिस्तर पर गए कुछ ही देर हुए थे कि महिला स्वर गूंजा, 'अपना समाजवाद बाहर ही रखा करो। घर में किसा मियां को लाने की जरूरत क्या थी। मैं उसके लिए रोटी-वोटी बनाकर अपना धर्म नष्ट नहीं करुंगीं।' भाईजान चुपचाप उठे। कपड़े बदल लिया। जैसे ही लालाजी आए, उनसे कोई बहाना बनाया। और उनके घर से रोकने के बावजूद बाहर निकल आए। कभी घर में इसका ज़िक्र छिड़ा, तो अम्मी बोलीं। 'उस औरत ने ग़लत क्या कहा। ग़लती लालाजी की भी तो कम नहीं। समाजवाद का पौधा गर अपने आंगन में भी उगाते, तो ऐसा थोड़ी न होता।'
- सैयद शहरोज़ क़मर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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