
अम्मी के किस्से - भाग 14
पयाव, शक्कर पारा, बताशा, बुंदिया और मलीदा जैसी मिठाइयों वाला ही दौर था। जिस तरह रोटी के टुकड़े को चीनी और घी के साथ मसल-मसल कर मलीदा बनाया जाता था। उसी तरह कभी सिलेट, तो कभी छड़ी की मदद से बदन को मसल-मसल कर बच्चे मलीदा बना दिए जाते। यह दोनों ही मलीदा बनाने में उस्ताद थीं उस्तानी नन्ना(नानी)। यानी क़ाज़ी मोहल्ला गर्ल्स प्राइमरी स्कूल की हेडमिस्ट्रेस हमीदा उस्तानी। कम उम्र में ही वो बेवा(विधवा) हो गयी थीं, सारी उम्र बच्चों को पढ़ाने में खपा दी। तब स्कूल की अपनी इमारत भी न थी, तो उन्होंने अपने घर को ही स्कूल बना लिया। तब डेस्क-बेंच न था। दरी-पट्टी, बोरा और उन्हीं की चौकी-तख़्त पर बच्चियां पढ़तीं। उस्तानी नन्ना की सहयोगी थीं अम्मी और नूर बाजी। नूर बाजी दोनों उस्तानियों से जूनियर थीं। लेकिन उस्तानी नन्ना का दबदबा मोटी तंदरुस्त नूर बाजी की जगह दुबली-पतली अम्मी पर ज़्यादा था। अम्मी भी उनकी हर बात पर 'जी ख़ाला-जी ख़ाला' कहतीं जातीं। ढेरों कागज़ी काम, जिन्हें करने की ज़िम्मेवारी स्कूल हेड की होती है, अम्मी के नाज़ुक कंधे उसे सँभालते। कई बार ऐसा होता कि घंटी के बजने के साथ ही लड़कियां तितली की तरह फुर्र हो चुकी होतीं। कोई सखी भी न होती जिसके साथ मैं खेलता। क्योंकि डोलकस (शेरघाटी का आम शब्द जो डलिया की जगह इस्तेमाल होता रहा है) की तरह मैं अम्मी के आगे-पीछे ही डोलता रहता था। लेकिन शाम जब घिरने लगती और अम्मी को उस्तानी नन्ना ऑफिशियल कामों में उलझाये रखती, तो कोफ़्त (खिन्नता) होती थी। ऐसी ही एक साँझ एक लंबी सी गोरी-चिट्टी औरत एक सुबुक (अंग्रेजी के क्विट जैसी) बेटी और उसे थोडा बड़े दो लगभग हमारी उम्र के बेटों के साथ पहुंची। बच्चों के दाख़िले के लिए आई थीं। शबाना का नाम रजिस्टर में तो दर्ज हो गया, लेकिन लड़के तब्बू-तौक़ीर वंचित रह गए। धीरे-धीरे उनकी और अम्मी की मुलाक़ात बढ़ती गयी और कब दोनों एक दूसरे को मित्तिन (संगी-साथी) कहने लगी, पता ही न चला। दरअसल उनका भी नाम अम्मी की तरह नफ़ीसा ही था। और अम्मी की सुसराल सादीपुर के पास ही मीराबिगाह गांव में उनकी भी शादी हुई थी। दोनों गांव गया के टिकारी इलाके में हैं। तब्बू यानी तालिब मिरानी फ़ेस बुक मैसेज में लिखते हैं, मित्तन ख़ाला ने मेरी अम्मी से कहा कि तब्बू-तौक़ीर को भी शबाना के साथ स्कूल भेज दिया करो। फिर हम दोनों भाई भी लड़कियों के इस स्कूल में जाने लगे। उन्हीं के पास बैठते। हमारा प्ले स्कूल आपकी अम्मी का ही स्कूल था। लेकिन हम भाइयों को लेकर उनकी हमीदा उस्तानी से हमेशा खटपट होती-रहती। लड़कियों के स्कूल में लड़को को वो देखना नहीँ चाहती थी। जबकि मित्तन ख़ाला चाहती थी कि जबतक हम भाइयों का कहीं ऐडमिशन नहीं हो जाता, यहीं पढ़ें। इस तरह मित्तन ख़ाला की गोद हमारी पहली दर्सगाह (पाठ शाला) बनी। हमीदा उस्तानी की नज़रों से बचाने के लिये हम बच्चों को अपने आँचल से छुपा लेती।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
क्रमशः
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